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दैनिक जागरण का दिनांक 29-08-11 का एक लेख पढ़ने को मिला, वास्तव मे अन्ना हज़ारे जी के आंदोलन की सुदृढ़ ताकत थी महगाई । लोगो ने इस आंदोलन मे तरह तरह के आरोप लगाए कोई देशी तो कोई विदेशी हांथ होने का आरोप लगता रहा किन्तु वास्तविकता से परे। पिछले 64 वर्षो मे अहम राजनीतिक हलचलों की बुनियाद जनता को निचोड़ने वाली महगाई ही रही है । 1967 मे कांग्रेस को लगे पहले चुनावी झटके से लेकर ताजा आंदोलन तक महगाई हर प्रमुख उथल पुथल और परिवर्तन की अदृश्य नायिका रही है । अन्य देशों मिस्र, यूनान , ट्यूनीशिया की ताजा क्रांतियाँ और चीन मे हाल के आंदोलनो को भी पहली चिंगारी महगाई से ही मिली थी । भारत सरकार ने देश के अतीत और अंतराष्ट्रीय वर्तमान दोनों से ही कोई सबक नहीं लिया । महगाई देश की आर्थिक ही नहीं राजनीतिक नसीहतों का भी एक महत्वपूर्ण अध्याय है । अन्ना के पीछे खड़ी जनता दो सालों से महगाई से त्रस्त है, यही गुस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन की आड़ मे फट पड़ा। प्रधानमंत्री जी का यह तर्क देना की कोई जादू की छड़ी नहीं है, प्रणव मुखर्जी महगाई को मजबूरी बताते हैं ऐसा कहने से पहले मंत्रियों को सोचना चाहिए क्यूंकी किसी भी ऐसे बयानो के गहरे असर होते हैं । सन 1967,1974-75,1991,-96 से 1999 तक के वर्ष राजनीतिक उथल पुथल से ओत-प्रोत थे क्यूँकी इन सभी वर्षों मे महगाई अपने चरम पर थी। सन 1974 की महगाई कांग्रेस के लिए मुश्किल बन गई थी उस समय खाने के लिए दंगे भी हुये थे । सन 1975 का आपात काल इस घटना का मुश्किल दौर था जो 1977 मे कांग्रेस की अभूतपूर्व पराजय मे जाकर रुका था । जब जब आंदोलन हुए बड़े परिवर्तन हुए, सिर्फ महगाई के कारण ही हुए हैं । महगाई मे वह शक्ति है की बड़े से बड़े तख्त-ताउस को पल भर मे ढहा सकती है ।
हरमंगल सिंह
फ़ैज़ाबाद
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